वजीरगंज के कोंडर झील की सतह से स्पर्श करती है ऐतिहासिक बारादरी
गोण्डा। न कोई शीश महल है, न कोई ताजमहल है, यादगार-ए-मुहब्बत, ये प्यार का महल है। यह शेर अवध सूबे के वजीर-ए-आला नवाब आसिफुद्दौला पर फिट बैठता है, जिन्होंने अपनी बेगम की याद में बेगम मकबरा बनवाया था, जो संरक्षण एवं देखभाल के अभाव में अपना अस्तित्व खोने की कगार पर है।
यह बेगम मकबरा जिले के वजीरगंज स्थित कोंडर झील के तट में पत्थरों के चबूतरों पर अडिग एक शिला है। शिल्प के स्तर पर यह शिला ‘ताजमहल’ जैसी बेजोड़ न सही, लेकिन प्रेम का यह स्मारक संगमरमर की इस इमारत से कम हसीन नहीं है। ताज के कंगूरों से नुमाया हो रही एक नवाब की हैसियत के उलट इस चबूतरे का हर पत्थर प्रेम के रस में डूबा हुआ है।
बताना जरुरी है कि वजीर-ए-आला और उनकी बेगम के बीच का अटूट रिश्ता आज भी उनकी सरजमीं एवं इलाकाई लोगों में महसूस किया जा रहा है। प्रेम के विशाल रुपी पत्थर को इन शब्दों में उकेरा गया जो शेर की तरह बहादुर और चट्टान की तरह अडिग है। अवध सूबे के नवाब आसिफुद्दौला की पसंदीदा आरामगाह यहां की बारादरी व बेगम मकबरा है। यह ऐतिहासिक धरोहर गोण्डा-अयोध्या हाईवे से पश्चिम है। एक चबूतरा जिस पर खड़ा है विशाल लखौटी ईंट व पत्थर। यह है वजीर-ए-आला के बेगम की कब्र, जो बारादरी निर्माण के कुछ दिन बाद बेगम की यहां मृत्यु के बाद बनवाया था। वजीर-ए-आला ने वर्ष 1782 में अपने राज्य की देखरेख हेतु यहां राजधानी कोंडर झील की सतह को स्पर्श करती हुई विशाल इमारत बनवाया था।
जब वजीर-ए-आला अपने राज्य के बाशिंदों का कुशलक्षेम जानने यहां आते तो उनके साथ बेगम भी आती थीं। बेगम उनकी हर यात्रा में हमसफर बनकर रहती थीं। वह इन्हीं के साथ झील का लुत्फ भी लेती थीं। वर्ष 1790 में बेगम की बीमारी के चलते मृत्यु यहीं हो गई। बेगम की मौत से नवाब टूट गये और आरामगाह के पास ही दफना दिया। बाद में कब्र को सजाने और संवारने के लिए इलाहाबाद से पत्थर व लखनऊ से लखौटी ईंटों से कब्र को सजाए और संवारे। आज भी ये ईंटें पति-पत्नी के अलबेले रिश्ते की गवाही दे रही हैं। कब्र सजाने और संवारने के बाद वजीर-ए-आला यहां कभी नहीं आए।
संरक्षण के अभाव से खतरे में वजूद
वजीर-ए-आला द्वारा बनवायी गयी चतुष्कोणीय चहारदीवारी, बारादरी, नवाबी कालीन व ऐतिहासिक जमशेद बाग, जिसके गर्भ में कई ऐतिहासिक इमारतें फीलखाना, इमामबाड़ा, बेगम मकबरा है, जिसमें बेगम मकबरा, फीलखाना, इमामबाड़ा पूरी तरह से ढह चुके हैं। लोग ईंट व भूमि की लालच में वजीर-ए-आला की विरासत की इस शानदार यादगार को खत्म करने पर आमादा हैं। पुरातत्व विभाग इस चहारदीवारी व अन्य के रखरखाव और संरक्षण के लिए कोई कदम उठाने की जहमत नहीं उठा रहा है।
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