
हाल ही में असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने बयान दिया कि “पूरा देश में मदरसे बंद हो जाने चाहिए।” यह एक ऐसा बयान है जिसने न केवल मुसलमानों को, बल्कि हर उस भारतीय को चौंकाया जो शिक्षा की विविधता में विश्वास रखता है। यह सिर्फ एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं, बल्कि एक पूरे शिक्षण तंत्र पर सवाल है जिसने सदियों से समाज को ज्ञान, संस्कार और समझ की रोशनी दी है।
लेकिन क्या सच में मदरसे देश के लिए बोझ हैं? या फिर वे ऐसे संस्थान हैं जिन्होंने भारत के निर्माण में चुपचाप योगदान दिया है?
भारत की शिक्षा परंपरा में मदरसों की भूमिका
मदरसे केवल धार्मिक शिक्षा के केंद्र नहीं हैं। आज़ादी से पहले जब अंग्रेज़ी स्कूलों की पहुँच सीमित थी, तब मदरसे ही वह स्थान थे जहाँ आम लोग पढ़ना-लिखना सीखते थे। यहाँ से बच्चों को अरबी, उर्दू, हिंदी, गणित, तर्कशास्त्र और नैतिकता की शिक्षा दी जाती थी। कई मदरसों ने समय के साथ खुद को आधुनिक बनाया है और अब वहाँ विज्ञान, अंग्रेज़ी, और कंप्यूटर की शिक्षा भी दी जा रही है।
उत्तर प्रदेश, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल के सैकड़ों मदरसों में अब बच्चे आधुनिक शिक्षा के साथ धार्मिक ज्ञान भी हासिल कर रहे हैं। इस संतुलन ने कई ऐसे युवाओं को तैयार किया है जो देश की प्रगति में अहम भूमिका निभा रहे हैं।
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मदरसा पृष्ठभूमि से निकले महान नेता और शिक्षाविद
भारत की आज़ादी और विकास में कई ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी बुनियादी शिक्षा मदरसे से शुरू की:
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद – भारत के पहले शिक्षा मंत्री। उन्होंने भारतीय शिक्षा प्रणाली की नींव रखी और IIT, UGC जैसी संस्थाओं की स्थापना में अहम भूमिका निभाई।
डॉ. ज़ाकिर हुसैन – भारत के तीसरे राष्ट्रपति और जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक। उन्होंने जीवन भर शिक्षा को राष्ट्र निर्माण का आधार बताया।
सैयद अहमद ख़ाँ – अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक, जिन्होंने धार्मिक शिक्षा को आधुनिक विज्ञान और तर्क से जोड़ने का काम किया।
मौलाना हुसैन अहमद मदनी – आज़ादी के आंदोलन के महान नेता, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता और शिक्षा के प्रसार पर ज़ोर दिया।
इन सभी ने यह साबित किया कि मदरसे से निकला विद्यार्थी सिर्फ धर्म की जानकारी नहीं रखता, बल्कि वह समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी नागरिक बन सकता है।
आधुनिक दौर में मुसलमानों का योगदान
आज भारत के हर क्षेत्र में मुसलमानों की भागीदारी दिखती है — चाहे वह विज्ञान हो, चिकित्सा, शिक्षा, सेना, या प्रशासन।
डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम – भारत के “मिसाइल मैन” और पूर्व राष्ट्रपति, जिन्होंने विज्ञान को राष्ट्र निर्माण का सबसे सशक्त साधन बताया।
डॉ. फिरोज़ अहमद – प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक, जिनका काम भारतीय पर्वतीय संरचनाओं के अध्ययन में विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है।
डॉ. शौकत अली – ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (AIIMS) के कार्डियोलॉजी विभाग के प्रमुख, जिनकी गिनती भारत के शीर्ष डॉक्टरों में होती है।
सैयद अकबरुद्दीन – संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रह चुके राजनयिक, जिन्होंने वैश्विक मंच पर भारत की आवाज़ बुलंद की।
नसीरुद्दीन शाह, ए.आर. रहमान, इरफान पठान, सैयद अंसारी (पत्रकार) जैसे नाम भी उस समुदाय से आते हैं जो शिक्षा, कला और खेल में भारत का नाम ऊँचा कर रहे हैं।
इनमें से कई ने अपनी शुरुआती शिक्षा मदरसों में या धार्मिक पृष्ठभूमि वाले संस्थानों से प्राप्त की। वे इस बात के प्रतीक हैं कि शिक्षा का कोई धर्म नहीं होता — ज्ञान हर जगह समान रूप से उपयोगी है।
क्या मदरसे बंद करना समाधान है?
अगर कुछ मदरसों में सुधार की ज़रूरत है, तो सरकार को उन्हें बंद करने के बजाय आधुनिक बनाने में मदद करनी चाहिए।
कई राज्यों में सरकारें पहले से ही “मॉडर्न मदरसा एजुकेशन स्कीम” चला रही हैं, जिसमें मदरसों में कंप्यूटर, गणित और विज्ञान पढ़ाने की सुविधा दी जाती है। यह नीति उन लाखों गरीब बच्चों के लिए एक मौका है जो निजी या सरकारी स्कूलों में नहीं जा पाते।
अगर मदरसे बंद कर दिए गए, तो उन बच्चों की शिक्षा कहाँ जाएगी?
क्या सरकार उनके लिए वैकल्पिक व्यवस्था करेगी?
क्या उनकी आर्थिक स्थिति उन्हें किसी और संस्थान में पढ़ने की अनुमति देगी?
इन सवालों के जवाब हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि समस्या मदरसे नहीं, बल्कि शिक्षा में असमानता है।
भारत की ताकत है विविधता, न कि एकरूपता
भारत की खूबसूरती इसकी विविधता में है। यहाँ मंदिर हैं, गुरुद्वारे हैं, चर्च हैं, और मदरसे भी हैं — सब मिलकर इस देश की पहचान बनाते हैं।
संविधान हर नागरिक को अपने धर्म और शिक्षा की स्वतंत्रता देता है। ऐसे में किसी एक समुदाय की शिक्षा प्रणाली को निशाना बनाना संविधान की आत्मा के खिलाफ है।
मदरसे नफरत नहीं, इंसानियत सिखाते हैं। वहाँ बच्चों को नम्रता, सत्य और अनुशासन की शिक्षा दी जाती है। अगर वही बच्चे आधुनिक शिक्षा के साथ आगे बढ़ें, तो वे डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर और अधिकारी बन सकते हैं — और बन रहे हैं।
शिक्षा का मकसद बाँटना नहीं, जोड़ना है
हेमंत बिस्वा शर्मा का बयान राजनीतिक दृष्टि से फायदेमंद लग सकता है, लेकिन शिक्षा को राजनीति से जोड़ना खतरनाक है।
भारत को ऐसे नेताओं की ज़रूरत है जो “मदरसे बंद करो” नहीं, बल्कि “मदरसे सुधारो” की बात करें।
क्योंकि जब कोई बच्चा — चाहे वो मदरसे में पढ़े या किसी कॉन्वेंट स्कूल में — शिक्षित होता है, तो वह देश की ताकत बनता है।
मदरसे ज्ञान के दीपक हैं। उन्हें बुझाने की नहीं, बल्कि और उजाला करने की ज़रूरत है।
क्योंकि इतिहास गवाह है — जिस समाज ने शिक्षा की राह बंद की, वह अंधकार में खो गया। और भारत, जो “वसुधैव कुटुम्बकम्” में विश्वास रखता है, उसे किसी भी दीपक को बुझाने की नहीं, बल्कि सभी को साथ लेकर चलने की ज़रूरत है।
