‘मैं तुलसी का वंशधर, अवधपुरी है धाम।
सांस-सांस सीता बसी, रोम-रोम में राम।’
हिंदी-उर्दू साहित्य के प्रख्यात कवि और शायर बेकल उत्साही का नाम उन हस्तियों में से एक है, जिनकी रचनाएं प्रकृति के साथ-साथ गांव, प्रेम, सामाजिक सौहार्द और देशभक्ति की भावना से भी परिपूर्ण होती थीं। वे भाषा की त्रिवेणी थे, जहां अवधी-हिंदी-उर्दू तीनों भाषाएं गले मिलती थीं। हिंदू-मुस्लिम एकता, हिंदी-उर्दू समरसता के अलम्बरदार बेकल उत्साही ने हिन्दुस्तान की गंगा जमुनी तहज़ीब तथा कबीर, मीर और नज़ीर की परम्परा को अपनी शायरी के ज़रिये ख़ास मिज़ाज दिया। बेकल उत्साही ने कभी अपने बारे में लिखा था- ‘सुना है मोमिन ओ ग़ालिब न मीर जैसा था, मारे गांव का शायर ‘नज़ीर‘ जैसा था, छिड़ेगी दैर-ओ-हरम में यह बहस मेरे बाद, कहेंगे लोग कि ‘बेकल‘ कबीर जैसा था।’
उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले (अब बलरामपुर) के उतरौला तहसील क्षेत्र के गौर रमवापुर गांव में 01 जून 1924 को जमींदार परिवार में जन्मे बेकल उत्साही का मूल नाम मोहम्मद शफ़ी खान था। शेरो-शायरी के शौक ने पिता-पुत्र के रिश्ते में दरार पैदा कर दी थी। उनके पिता लोधी मोहम्मद जफर खान जब उन्हें जमींदारी के कानून-कायदे बताते थे, तो वे खेतों में बैठकर शेरो-शायरी करते रहते। पिता को यह नागवार लगता। फिर उन्होंनेे अपनी मंजिल तय कर ली और एक दिन ऐसा आ गया जब उनकी पहचान मुहम्मद शफी खान की जगह बेकल उत्साही के नाम से बन गई।
बात सन् 1945 की है, जब देवा शरीफ के हजरत वारिस अली शाह की मजार की यात्रा के दौरान शाह हाफिज प्यारे मियां ने कहा, बेदम गया बेकल आया। उस घटना के बाद मोहम्मद शफी खान ने अपना नाम बेकल वारसी के रूप में बदल लिया। 1952 में पंडित जवाहर लाल नेहरू एक कार्यक्रम में शामिल होने गोण्डा के टॉमसन (अब शहीदे आजम सरदार भगत सिंह) इण्टर कालेज पहुंचे तो वहां बेकल ने किसान गीत पाठ करके नेहरू का स्वागत किया।
कविता से प्रभावित होकर पं. नेहरू ने कहा कि यह हमारा उत्साही शायर है। इसके बाद से ही उनका नाम बेकल उत्साही हो गया। उन्होंने देश-विदेश में घूम-घूमकर अवधी-उर्दू-हिन्दी शायरी से लोगों को जोड़ा। 03 दिसंबर 2016 को राम मनोहर लोहिया अस्पताल दिल्ली में उनका निधन हो गया।
बेकल उत्साही ने 1942 में पहली बार जब बलरामपुर के एमपीपी इंटर कालेज में शेर पढ़ा, तब वे कक्षा सात में पढ़ते थे, लेकिन इसके बाद उन्होंने पलटकर नहीं देखा और शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचे। अमूमन लोग कामयाबी और शोहरत के बाद अक्सर अपने वतन और मिट्टी से कट जाते हैं,
लेकिन बेकल उत्साही में सादगी फक्कड़़पन था। वे मस्त मौला किस्म के इंसान थे। गांव, खेत, खलिहान और पगडंडियों की याद दिलाने वाले इस महान शायर ने कभी भी अपनी मिटटी से नाता नहीं तोड़ा। वे जमींदार थे, फिर भी उन्होंने सम्पन्नता का कभी कोई प्रदर्शन नहीं किया, बल्कि इससे बचने के लिए अपनी तमाम चल-अचल संपत्तियों को जरुरतमंदों के बीच बांट दिया था। उन्होंने यह काम युवावस्था के पूर्व ही कर लिया था, ताकि काव्य रचना सृजन में कोई बाधा न आए। वे ज़मींदारी को शोषण का ही एक रूप मानते थे और कहते थे- ‘ये दबदबा ये हुकूमत ये नश्शा-ए-दौलत, किरायेदार हैं सब घर बदलते रहते हैं।’
अरबी, फारसी, उर्दू और हिन्दी के गहन अध्येता बेकल ने अपनी कविता की शुरूआत अवधी से की और उनकी यह यात्रा उम्र के अंतिम पड़ाव तक जारी रही। इसी तरह 1952 से अंतिम समय तक मंचों पर भी उनकी उपस्थिति बनी रही। बेकल राजनैतिक नज़्में लिखा करते थे। अंग्रेज़ों को यह बात नागवार गुज़रती थी। कई बार क्रन्तिकारी और देशभक्ति ग़ज़लों को लिखने की वजह से जेल भी जाना पड़ा। वह साहित्य की कमोबेश हर विधा में माहिर खिलाड़ी थे। चाहे नात ए पाक हो, कशीदा, मनकबत, दोहा, रूबाई, ग़ज़ल या फिर गीत, उन्होंने सभी विधाओं में खूब लिखा। 1952 में पहली मुलाकात में ही पं. नेहरू बेकल के मुरीद हो गए थे।
तभी से वह उनके सम्पर्क में रहने लगे थे। नेहरू के बाद इन्दिरा और राजीव गांधी उन्हें बहुत प्यार करते थे। इसीलिए वे नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक कांग्रेस से जुड़े रहे। बलरामपुर का उनका घर बनवाने में पं. नेहरू ने करीब 35 हज़ार रूपये दिए थे। विरोधी विचारधारा के बावजूद वह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के भी करीब रहे। साहित्य में उनके योगदान के लिए 1976 में उन्हें राष्ट्रपति ने पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया। बेकल उत्साही 1986 में राज्य सभा के सदस्य भी रहे। वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा उन्हें यश भारती मिला था। 03 दिसंबर 2016 को दिल्ली में उन्होंने अंतिम सांस ली।
प्रख्यात समकालीन साहित्यकार अशोक चक्रधर ने बेकल उत्साही के बारे में लिखा है कि बेकल उत्साही हमारे देश की वाचिक परंपरा में गंगा-यमुना की मिली जुली संस्कृति के अकेले गायक थे। उन्होंने इसकी तसदीक की-‘गजल के शहर में गीतों के गांव बसने लगे, मेरे सफ़र के हैं ये रास्ते निकाले हुए।’
बलरामपुर जिला नेपाल से सटा हुआ है। नेपाल और भारत का रोटी और बेटी का रिश्ता है। बेकल की बड़ी बेटी का विवाह नेपाल सीमा से सटे लक्ष्मी नगर में हुआ है। इसलिए नेपाल उनका अक्सर आना-जाना होता था। नेपाल का राज घराना भी बेकल उत्साही का मुरीद था। वहां का शाही दरबार बेकल को हमेशा हमेशा के लिए अपनाना चाहता था। बकौल बेकल तत्कालीन राजा महेन्द्र ने उन्हें नेपाल का राष्ट्रीय कवि तक बनाना चाहा था। राजा की इच्छा थी कि बेकल हमेशा-हमेशा के लिए नेपाल के हो जाएं, लेकिन बेकल भारत की मिट्टी से बेपनाह मोहब्बत करते थे और उन्हें बलरामपुर छोड़ना गवारा न था। तो भला वह कैसे अपना देश छोड़ देते। देशप्रेम के चलते उन्होंने राजा का प्रस्ताव ठुकरा दिया था।
बेकल ने लिखा था कि- ‘फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है, गरीब शर्माे हया में हसीन कुछ तो है। लिबास क़ीमती रख कर भी शहर नंगा है, हमारे गांव में मोटा-महीन कुछ तो है।’
बेकल ने लिखीं दर्जनों किताबें, मिला पुरस्कार
बेकल उत्साही ने हिंदी और उर्दू दोनों को पूरी दुनिया में अपनी रचनाओं से परिचित करवाया। उनकी गीत, ग़ज़ल, नज़्म, मुक्तक, रुबाई, दोहा आदि विविध काव्य विधाओं में उनकी बीस से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हैं। इसमें 1952 में विजय बिगुल कौमी गीत, 1953 में बेकल रसिया, अपनी धरती चांद का दर्पण, पुरवइया, महके गीत, निशाते ज़िन्दगी आदि प्रमुख हैं। 1976 में उन्हें पद्म श्री से नवाजा गया। 1986 में वे राज्यसभा में गए। 1980 में मीर तकी मीर अवार्ड, 1982 में नात पाक अकादमी पाकिस्तान द्वारा गोल्ड मेडल के अलावा तमाम साहित्यिक अवार्ड से भी नवाजा गया था। उन्हें अपनी किताब ‘अपनी धरती चांद का दर्पण‘ सर्वाधिक पसंद रही।
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